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इ॒मामू॒ नु क॒वित॑मस्य मा॒यां म॒हीं दे॒वस्य॒ नकि॒रा द॑धर्ष। एकं॒ यदु॒द्ना न पृ॒णन्त्येनी॑रासि॒ञ्चन्ती॑र॒वन॑यः समु॒द्रम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imām ū nu kavitamasya māyām mahīṁ devasya nakir ā dadharṣa | ekaṁ yad udnā na pṛṇanty enīr āsiñcantīr avanayaḥ samudram ||

पद पाठ

इ॒माम्। ऊँ॒ इति॑। नु। क॒विऽत॑मस्य। मा॒याम्। म॒हीम्। दे॒वस्य॑। नकिः॑। आ। द॒ध॒र्ष॒। एक॑म्। यत्। उ॒द्ना। न। पृ॒णन्ति॑। एनीः॑। आ॒ऽसि॒ञ्चन्तीः॑। अ॒वन॑यः। स॒मु॒द्रम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:85» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:31» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (इमाम्) इस (कवितमस्य) अतिशय कविजन (देवस्य) विद्वान् की (मायाम्) बुद्धि को (उ) और (महीम्) वाणी को कोई भी (नु) शीघ्र (नकिः) नहीं (आ, दधर्ष) दबाता है और (यत्) जो (उद्ना) जल से (न) जैसे वैसे (एनीः) हरिणियों के सदृश दौड़तीं और (आसिञ्चन्तीः) चारों और सींचती हुईं (अवनयः) रक्षा करनेवाली नदियाँ (एकम्) एक (समुद्रम्) समुद्र को (पृणन्ति) पूर्ण करती हैं, उनको आप लोग यथावत् जानिये ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बड़े विद्वानों के समीप से बड़ी बुद्धि और वाणी को प्राप्त होकर अन्यों के लिये प्राप्त कराते हैं, वे ही संसार में धन्य होते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किङ्कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! य इमां कवितमस्य देवस्य मायामु महीं कोऽपि नु नकिराऽऽदधर्ष यद्या उद्ना नैनीरासिञ्चन्तीरवनय एकं समुद्रं पृणन्ति ता यूयं यथावद्विजानीत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमाम्) (उ) (नु) (कवितमस्य) अतिशयेन कवेः (मायाम्) मेघाम् (महीम्) वाणीम् (देवस्य) (नकिः) (आ) (दधर्ष) आधृष्णोति (एकम्) (यत्) याः (उद्ना) उदकेन (न) इव (पृणन्ति) पूरयन्ति (एनीः) एन्यो मृगस्त्रिय इव धावन्त्यः (आसिञ्चन्तीः) समन्तात् सिञ्चन्त्यः (अवनयः) अवन्ति यास्ता नद्यः। अवनय इति नदीनामसु पठितम्। (निघं०१.१३) (समुद्रम्) सागरम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या महाविदुषां सकाशान्महतीं प्रज्ञां वाचं च प्राप्यान्यान् प्रापयन्ति त एव जगति धन्याः सन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे मोठ्या विद्वानाकडून महान बुद्धी व वाणीची प्राप्ती करतात व ती इतरांनाही प्राप्त करवून देतात. तीच जगात धन्य असतात. ॥ ६ ॥